अपने शहर में ऐसे बेगाने हम न थे
थे लोग बहुत जाने पहचाने कम न थे
थी रौनकें बाजार में गलियां भरी भरी
आपस में एक दूजे से अनजाने हम न थे
मिलते थे गर्मजोशी से बाहें उछाल कर
अपने भी दोस्तों में दीवाने कम न थे
होती थी चाय घरों में बेबाक गुफ्तगू
हम सबके अपने अपने अफसाने कम न थे
इंसानियत के रिश्तों में फिर से दरार है
पहले से ही दुनिया में ये खाने कम न थे
अब किसी #आँखकाकाजल हमें #आवाज़ ना दे..
हम हैं #ख़ामोश तो ख़ामोश ही रहने दो #हमें...
बिछड़ जाऊ तो फिर, रिश्ता तेरी यादों से जोड़ूँगा
मुझे ज़िद है,मैं जीने का कोई मौका न छोड़ूँगा
मोहब्बत में तलब कैसी,वफ़ादारी की शर्ते क्या
वो मेरा हो न हो,मैं तो उसी का हो के छोड़ूँगा
ताल्लुक़ टूट जाने पर,जो मुश्किल में तुझे डाले
मैं अपनी आँख में,ऐसा कोई आंसू ना छोड़ूँगा
क़िस्मत में लिखा था सामना दर्द से होना
तू ना मिलता तो किसी और से बिछड़े होते
मुझे इक भीड़ ने मारा है मिलकर
कोई भी अब मेरा क़ातिल नही है
किसी के हक़ में किसी के ख़िलाफ़ लिख दूँगा
मैं तो आइना हूँ जो देखूँगा साफ़ लिख दूँगा
वो शक्स मेरी हर कहानी हर किससे में आया
जो मेरा होकर भी मेरे हिस्से में ना आया
ना जाने किस मिट्टी को मेरे वजूद की खवाईस थी
मैं उतना तो बना भी ना था जितना मिटा दिया गया हूँ
जो तुझमें -मुझमें चला आ रहा है बरसों से
कहीं ज़िंदगी उसी फ़ासले का नाम तो नहीं
उमेर की सारी थकान लाद के घर जाता हूँ
रात बिस्तर पर सोता नही मर जाता हूँ
अकसर रात भरे शहर के सन्नाटे में
इस क़दर जोर से हँसता हूँ के डर जाता हूँ
मेरे आने की खबर सिर्फ़ दीया रखता है
मैं हवाओं की तरह आकार गुज़र जाता हूँ
दिल तहर जाता है भूली हुई मंजिल में कहीं
मैं किसी दूसरे रास्ते से गुज़र जाता हूँ
सिमता रहता हूँ बहुत हल्कें अहबाब में मैं
चार दीवारी में आते ही बिख़र जाता हूँ
मैंने अपने ख़िलाफ़ खुद गवाही दी है
ग़र तेरे हक़ में नहीं है तो मुकर जाता हूँ
बिछड़ते वक्त मेरे हर एक ऐब गिनाए उसने मुझे
सोच रहा हूँ जब मिला था उससे तब कौन सा हुनर था मुझमें
दर्द मुझको घेर लेता है रोज़ नए बहने से
क्या वो बकिफ हो गया है मेरे हर ठिकाने से
ज़िन्दगी सुन तू यही पे रुकना,
हम हालात बदल के आते है.
तेरा हर अन्दाज़ अच्छें है
सिवाये मूझे नज़रंदाज़ करने से
चित्रकार तूजको उस्ताद मानूँगा
ग़र दर्द भी खिंच मेरी तस्वीर के साथ
साया हूँ तो साथ ना रखने कि वज़ह क्या
पत्थर हूँ तो रास्ते से हटा क्यूँ नहीं देते
इस अजनबी शहर में करूँगा मैं और क्या,
रूठूँगा अपने आपसे ख़ुद को मनाऊँगा ll
क्यूँ शर्मिंदा करते हो रोज, हाल हमारा पूँछ कर ,
हाल हमारा वही है जो तुमने बना रखा हैं...
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